राह में कई थे अपने ,
हर मोड़ पर इक बिछड़ता रहा
मैं जान न सका |
जिंदगी तेरे लाख हैं रंग
पर इक भी रंग को
मैं पहचान न सका ||
कभी मेले दिखाए हसीन तो,
कहीं बाज़ार था भरा हुआ,
कभी बिक रही थी खुशियाँ तो,
कहीं सपना नीलाम था हुआ;
पर इक भी हिसाब खरीद का
मैं ठीक लगा न सका |
जिंदगी तेरे लाख हैं रंग
पर इक भी रंग को
मैं पहचान न सका ||
कहीं प्यार दिलाया अपनों का,
तो कहीं दोस्त थे खड़े हुए,
कभी दिखाया आशियाँ महबूब का,
तो कहीं मंदिर मिले बने हुए;
पर इक भी किरदार दिया हुआ,
मैं निभा न सका |
जिंदगी तेरे लाख हैं रंग
पर इक भी रंग को
मैं पहचान न सका ||



yar kya bat kah di....
ReplyDelete...do shabd kahata hoon tere likhawat par..
...khud sarsawti g aa jaye teri ek aahat par...
bhai saaab maan gaye yaar bhai shabdh nhi hai mere paas bahut aachi thi bas samajh lo
ReplyDeletebhaut mast likha hai yaar...puri zindagi ko ek kavita mein dhaal diya...
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत रचना है
ReplyDeleteभावो और शब्दों का अदभुत समन्वय है